पिता कहलाना / रामेश्वर नाथ मिश्र 'अनुरोध'
बड़ा कष्ट देता है
पिता कहलाना
खासकर तब
जब संतान उसे
पिता कहने या मानने से
इन्कार कर देती है।
पिता होने के नाते
मन ममता से
उमड़ता है
सर्वस्व समर्पण करता है
फिर भी निष्ठुर
तथाकित आधुनिक संतान
बाप को पापी या आपराधी
कहने में नहीं हिचकती
उसे छोटा सा प्रणाम करने
या अपेक्षित सम्मान देने
तक से बिचकती है
उस पर हँसती है
और मकड़ी की तरह
अपने द्वारा बनाये हुए
जाल में फंसती है
सच कहता हूँ
अब पिता कहलाने में
सुख नहीं मिलता
मन नहीं खिलता
अपितु शर्म आती है जो
हमारी आत्मा को रोजरोज खाती है।
पिता कहलाने में अब ग्लानि होती है
अंतरात्मा रोती है खासकर तब जब
संतानें तलवार ताने ताने मारती हैं
अपनी नाकामियों का ठीकरा
निरंतर कमजोर होते पिता के सिर फोड़ती हैं
अपनी असफलताओं का दायी
बूढ़े होते पिता को ठहराती हैं
भौंहें तानती हैं और
अपनी प्रगति में उसे बाधक या
अपरिहार्य बुराई मानती हैं।
गृहस्थी की भारी गाड़ी खींचते
कमजोर कंधोंवाले पिता के दुख से
दोचार नहीं होतीं अपितु
नयेनये आरोप मढ़ती हैं
बूढ़ी छाती पर चढ़ती हैं
उसे बातबात में नीचा दिखाती हैं
किस्से गढ़ती हैं।