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पिता की चिट्ठी / सुदर्शन वशिष्ठ
Kavita Kosh से
कभी इस ओर आओ तो
घर भी आना।
नज़दीक आ रहा
दादा का श्राद्ध
बहन की नहीं निभ रही ससुराल में
निपटाना है झगड़ा जमीन का
कभी इस ओर आओ तो
घर भी आना।
गाय ने दिया है बछड़ा
आम में आया है बूर
पहली बार फूला है
तुम्हारा रोपा अमलतास।
पीपल हो गया खोखला
पत्तियाँ हरी हैं
दादी की कम हुई यादाश्त
तुम्हारी याद बाकी है।
माँ देखती है रास्ते की ओर
काग उड़ाती है रोज़
कभी इस ओर आओ तो
घर भी आना।
दीवार में बढ़ गई है दरार
माँ का नहीं टूट रहा बुखार
दादा ने पकड़ ली है खाट
सभी जोह रहे तुम्हारी बाट
खत को समझना तार।
शेष सब सकुशल है
कभी इस ओर आओ तो
घर भी आना।