पिता के नाम (एक) / अनिल जनविजय
मुझे याद है पिता
वसंत की वह कोमल साँझ
तुम आँगन में बैठे थे और
तुम्हारे स्मॄति-कैनवास पर
विभिन्न फूलनुमा घटनाएँ डोल रही थीं
तुम्हारी आँखों में जलती मोमबत्ती की रोशनी थी
और था माँ का साँवला चेहरा
तुम्हारे कानों में गूँज रहा था
वह संगीत
जिसे तुमने
गाने वाली काली चिड़िया का संगीत कहा था
फिर तुमने बेतहाशा हँसने की कोशिश की थी
तुम्हारे गले से निकली भुरभुरी पोपली आवाज़
दूर मटमैली मीनारों से बजती
सांध्य-घंटियों के स्वर में खोकर रह गई थी
तुमने नहीं माना था तब
सफ़ेद ईश्वर का वह पवित्र आदेश
तुम तो अपने स्मॄति-शिशु को दुलारते गाने लगे थे
विस्मरण की गहन कंदराओं से फूटता
स्नेहिल समर्पण का वह गीत
जो तुमने और माँ ने वन्य-वॄक्षों के नीचे
डूबती हरी साँझ को
साथ-साथ गाया था
तुम्हारी आँखों से बहने लगी थी
सपनों की अग्निल नदी
और बहती नदी के साथ तुम्हारी आँखों में
उतर आया था विवाह-मंडप
स्नेह से सटे हुए दो शरीर
सप्तपदी के वेदमंत्र
और हवनकुंड के चारों ओर घूमते
दो जोड़ी पाँव
मैं विवश-सा तुम्हें देखता रहा था पिता
तुम्हारे दुख और उदासी पर सोचता हुआ
1977 में रचित