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पिता के पास लोरियाँ नहीं होतीं / भगवान स्वरूप कटियार

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पिता मोटे तने और गहरी जड़ों वाला
एक वृक्ष होता है
एक विशाल वृक्ष
और माँ होती है
उस वृक्ष की छाया
जिसके नीचे बच्चे
बनाते-बिगाड़ते है
अपने घरौंदे ।

पिता के पास
दो ऊँचे और मज़बूत कंधे भी होते हैं
जिन पर चढ़ कर बच्चे
आसमान छूने के सपने देखते हैं ।
 

पिता के पास एक चौड़ा और गहरा
सीना भी होता है
जिसमें जज़्ब रखता है
वह अपने सारे दुख
चेहरे पर जाड़े की धूप की तरह फैली
चिर मुस्कान के साथ ।

पिता के दो मज़बूत हांथ
छेनी और हथौड़ी की तरह
दिन-रात तराशते रहते हैं सपने
सिर्फ़ और सिर्फ़ बच्चों के लिए ।

इसके लिए वह अक्सर
अपनी ज़रूरतें
और यहाँ तक की अपने सपने भी
कर देता है मुल्तवी
और कई बार तो स्थगित भी ।

पिता भूत, वर्तमान, और भविष्य
तीनों को एक साथ जीता है
भूत की स्मृतियाँ
वर्तमान का संघर्ष और बच्चों में भविष्य ।
  
पिता की उँगली पकड़ कर
चलना सीखते बच्चे
एक दिन इतने बड़े हो जाते हैं
कि भूल जाते हैं रिश्तों की संवेदना
और सड़क, पुल और बीहड़ रास्तों में
उँगली पकड़ कर तय किया कठिन सफ़र ।

बाँहें डाल कर
बच्चे जब झूलते हैं
और भरते हैं किलकारियाँ
तब पूरी कायनात सिमट आती है उसकी बाँहों में
इसी सुख पर पिता कुरबान करता है
अपनी पूरी ज़िन्दगी ।

और इसी के लिए पिता
बहाता है पसीना ता ज़िन्दगी
ढोता है बोझा, खपता है फ़ैक्ट्री में
पिसता है दफ़्तर में
और बनता है बुनियाद का पत्थर
जिस पर तामीर होते हैं
बच्चों के सपने

पर फिर भी पिता के पास
बच्चों को बहलाने और सुलाने के लिए
लोरियाँ नहीं होतीं ।