पिता बनाम पति / निधि अग्रवाल
पिता आख़िर तुम चले ही गए!
हर बार की तरह इस बार भी
बिना कुछ कहे।
तुम्हारे जाने के पदचाप सुनकर भी
मैं तुम्हें रोक नहीं पाई,
बरसों का अबोला, क्षण में तोड़ना
सम्भव न हुआ,
शब्द बस काँप भर पाए।
जब तुम पिता थे
और मैं थी नन्हीं लाडो बिटिया,
तुम मेरे संरक्षक भी थे
और आदर्श भी।
शायद तुम इस तथ्य से
अनजान ही रहे कि उम्र बढ़ने पर
हर बेटी, हर बहन,
स्त्री हो जाती है पिता!
और जानते हो न
स्त्रियों के दुःख परस्पर जुड़ जाते हैं।
माँ की आँखों में आँसू दे,
तुम मुझसे मुस्कान नहीं पा सकते थे।
माँ के पास होना
तुमसे दूर होना नहीं था।
माँ के सम्मान की कामना,
तुम्हारे अपमान का पर्याय भी न थी।
लेकिन तुमने कर लिया ख़ुद को अकेला,
हमारी पुकारों को कर दिया अनसुना,
और मौन निभाते रहे ज़िम्मेदारियाँ।
जीवन चलता रहा पिता,
लेकिन उसमें सहजता का लावण्य न रहा।
जो बीत सकता था सम्मिलित कहकहों में,
उस पल मुस्कानों में भी साम्य न रहा।
हम प्रतीक्षित रहे पत्थर में
कभी तो उगेंगे कोपल,
किंतु हमारा स्नेह वह बरसात न कर पाया।
तुम्हारे ताप के आगे सब बूँदें
पहले ही भाप बन तिरोहित होती गईं।
अब बची हैं तो लपटों में तपी बस कुछ राख,
इन बुझे अंगारों में तुम्हारे स्नेह की नमी है।
पिता, तुम जान लो, तुम हार गए हो!
इस बार तुम अकेले नहीं जा पाए।
तुम्हारे साथ चले गए हैं,
हमारे सारे अलगाव, मतभेद,
और शायद कहीं गहरे उग आए
मनभेद भी।
दूर जाकर तुम पास आ गए हो पिता!
अब फिर से कह सकती हूँ तुमसे मन की सब बातें,
टोक सकती हूँ तुम्हें तुम्हारी ग़लतियों पर,
गर्वित हो सकती हूँ तुम्हारी उपलब्धियों पर।
अब तुम्हारे और मेरे बीच माँ नहीं है,
और न ही है
माँ के साथ किया तुम्हारा रूखा व्यवहार
पर माँ जाने क्यों अब दिन भर रोती है,
क्या अब भी तुमसे वह दिल की कुछ न कहती है?