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पिता हूँ मैं / बीना रानी गुप्ता
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					रोज सबेरे
रोटी की तलाश में
बच्चों की जरूरतों को
पूरा करने की आस में
कुछ पैसे बचाने की खातिर
पैदल ही चल पड़ता हूँ
दो जोड़ी कपड़ों में ही
वर्षों गुजार देता हूँ
मुन्नी का बस्ता फटा है
मुन्ने का जूता घिसा है
स्कूल की फीस भरना
अभी बाकी है
चल रहा हूँ दुनिया से बेखबर
मालिक की डाँट फटकार
नहीं करती कुछ असर
मेरे भी थे कुछ स्वप्न
नहीं हो पाये वे पूरे
बच्चे चढ़ें सफलता के सोपान
उनकी खुशी में ही
ढूँढ लेता अपनी खुशी
माँ की ममता 
हर कोई समझे
पिता का पितृत्व
कठोर आवरण में न झलके
रात ढली
थके सूरज सा
पहुँचता हूँ घर
बच्चों की हँसी ठिठोली में
भूल जाता हूँ दर्द
पिता हूँ मैं।
	
	