पिता / मनोज शर्मा
प्रत्येक व्यक्ति का एक पिता होता है
और उन्हें ले, एक अंतर्मन
जैसे स्मृतियाँ
जिन्हें धरोहर, पहचान, ज़रूरत कहा जा रहा है
पिता, इतने अधिक आते हैं
कि किसी मोड़ पर पता चलना ही बंद हो जाता है
आप पुत्र हैं या पिता
वैसे, इस प्रतिरूप को शाबाशी दी जाती है
जिन पहाड़ियों पर आप चढ़ना चाहते हैं
वहाँ पहले से पिता का झंडा फहराता है
पिता, आपकी तमाम हसरतों के पिता हैं
जब आपके बाल झड़ने लगते हैं
आपको मान लिया जाता है
हूबहू पिता
जो प्रेत आपकी नींद में आता है
तड़कसार, पिता में बदल जाता है
उस भोर
आप, उनके तमाम जीवन के श्रम पे
गर्वीले नहीं, घबराए होते हैं
जीवन के उरूज़ तक चलने वाले
घटक हैं पिता
पिता, अपनी महानता में
ऐसा सप्तक रचते हैं
जहाँ कोमल स्वर भी, तीव्र हैं
वे, दिहाड़ीदार हैं
मुँह का निवाला तक छोड़ते
आँसू छिपाते हैं
सहर्ष, ख़तरे उठाते हैं
आप में छोड़ अपना आपा
चले जाते हैं
पिता पुत्र का बुना गया संघर्ष / द्वंद्व
पुरानी रूसी कथाओं से भी पुरातन है
मैं, कभी भी इनमें नहीं उलझा
मेरे लिए ऐसे हैं पिता
ऐसे रंगकर्मी, ऐसे हैं पिता
जो अभिनेता को नाटकीय अभ्यास कराता है
और ज़रूरत पड़ने पर
पुत्र की तरकश में सजे बाणों पर
सान चढ़ाता है।