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पिता / रंजना जायसवाल
Kavita Kosh से
हवा में
उड़ रहे हैं पत्ते
पेड़ विवश और चुप
देखने को अभिशप्त
उसकी देह के हिस्से
स्वेद-रक्त से बने
सुख-दुःख में
साथ-साथ
झूमे
झुलसे
भींगे
कंपकंपाये पत्ते
इस कदर बेगाने
कि
उड़े जा रहे हैं
बिना मुड़े ही
तेज हवाओं के साथ
जाने किस ओर
भूल चुके हैं
साथ जीए सच को
क्या उन्हें याद होंगी
वे किरणें
जो सुबह नहलाती थी
गुनगुने जल से उन्हें
चिड़ियाएँ
जो मीठे गीत सुनाती थीं
की नई यात्रा के रोमांच में
भूल चुके होंगे सब कुछ
पर कैसे भूला दे
जमीं से जुड़ा पेड़
वह तो पिता है.