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पीछ-पीछे चांद / कुमार मुकुल

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कनारों के रेतीले विस्तार से उभर रही है शाम
और चांद ऊपर है
बहती धारा में परछाई है उसकी उससे भी चमकीली
जिसे बहा नहीं पा रही है धा ... र अंधेरा
इतना नहीं है अभी कि चांदनी का आभास
साफ हो
सांझ का धुधलका लौटा दे रहा है
चांदनी को ऊपर
शाम के साथ थि‍रा रही है हवा
और नदी अपनी सतह के नीचे बहने लगी है
स्टील की थाली सा चांद चिपका है सतह से
फिर गहराता है अंधेरा और चांदनी
उतरने लगती है ...
उसके साथ मैं भी उतरता हूं
निर्जनता में नदी की
पहला पांव और छप्प ... छप्प
जैसे नदी के वस्त्र खींचे हों मैंने
और गुदगुदाकर हल्के छलकी हो नदी
अपनी सतह के ऊपर
इसी तरह उतरता जाता हूं मैं
कमर कंधे तक गले तक
अपनी निरंतरता में नदी
मुझे नंगा कर रही है पर रोमांच नहीं है
मानो एक अ ह र नि श गोद हो

जरा सा सिर नीचे कर पानी में ठुड्डी को डुबाता
कुल्ला भरता हूं फिर फेंकता हूं स्थि‍र चांद पर
चूर चूर हो जाता है वह बिखर जाता है
फिर उसकी सारी छवियां एकमएक हो जाती हैं
तब मैं मारता हूं चांटा सतह पर
अब हजार टुकडे हो जाते हैं चोद के
मैं ऐसा करता जाता हूं फिर तैरता हूं आगे

तो पीछे पीछे चांद चलता आता है।
1998