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पीट रहा मन बन्द किवाड़े !/ हरीश भादानी

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पीट रहा मन बन्द किवाड़े !


    देखी ही होगी आँखों ने
    यहीं-यहीं ड्योढ़ी खुल-खुलती
    प्रश्नातुर ठहरी आहट से
    बतियायी होगी सुगबुगती
        बिछा, बिछाये होंगे आखर
फिर क्यों झरझर झरे स्वरों ने
    सन्नाटों के भरम उघाड़े ?
पीट रहा मन बन्द किवाड़े !


    समझ लिया होगा पाँखों ने
    आसमान ही इस आँगन को
    बरस दिया होगा आँखों ने
    बरसों कड़वाये सावन को,
        छींट लिया होगा दुखता कुछ
फिर क्या हाथों से झिटका कर
    रंग हुआ दाग़ीना झाड़े ?
पीट रहा मन बन्द किवाड़े !


    प्यास जनम की बोली होगी
    आँचल है तो फिर दुधवाये
    ठुनकी बैठ गई होगी ज़िद
    अँगुली है तो थमा चलाये
        चौक तलाश उतरली होगी,
फिर क्यों अपनी-सी संज्ञा ने
    सर्वनाम हो जड़े किवाड़े ?
पीट रहा मन बंद किवाड़े !