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पीठ पर बेटियाँ / महेश कुमार केशरी

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काकी अक्सर कहा करतीं
कि बाप के पीठ पर बेटे ही
होते हैं और बेटे ही
बनते हैं बाप का सहारा

बेटियाँँ बाप के पीठ पर नहीं
होतीं
और, ना ही वह बाद
में बनतीं हैं बाप का सहारा
 
कि, बहू मुझे अबकी बेटा ही
चाहिए
इसलिए भी कि वंश
आगे चल सके

और, थके- हारे, जले - भूने
मर-मर के खेतों में काम
करने वाले बाप का सहारा
आखिर बेटे ही तो बनेंगे

बेटियाँँ , फूल-सी कोमल और
सुकुमारी होतीं हैं, कहाँँ - कहाँँ
बाप के साथ खेतों में जलेंगीं
फिर, बेटियाँँ पराया धन
भी तो होती हैं

वो, बाप के पीठ पर नहीं होतीं
बाप के सीने में कील की तरह
होतीं हैं !

कई देवी-थानों में परसादी
से लेकर, मुर्गा- मुर्गी, खस्सी-
पठरु गछती थीं काकी
छुटकु के लिए

कुछ, सालों बाद छुटकु आया
काकी, नाचतीं- झूमतीं इतरातीं
मांँ की बलैंयाँ लेतीं,
मांँ को अशीषतीं
दूधो नहाओ पूतो -फलो
यहाँँ भी पूत ही फल रहें थें
और, बेटियाँँ हो रहीं थीं होम

बहुत सालों बाद जब, छुटकु
चला गया, परदेश, पढ़नें
और, काकी पडीं ख़ूब बीमार

इतना बीमार कि अपने से उठ
भी ना पाती थीं

और अस्पताल था गांँव से कोसों
दूर
तब, मैनें, अपनी पीठ पर
टांँग कर पहुँचाया था
उनको अस्पताल

जब, काकी ठीक हो गईं
तो, काकी मुझे अशीषतीं

आंँखों से झरते आंँसू
पोछतीं जातीं
पश्चाताप के आंँसू आंँखों से
मोतियों की तरह झरते जाते

इस, बात का अफसोस
काकी को आजीवन रहा
कभी- कभी आत्मग्लानि से
भरकर मेरे बालों में हाथ
फेरतीं