पीठ / सुरेश सेन निशांत
यह दस वर्ष के लड़के की पीठ है
पीठ कहाँ हरी दूब से सजा
खेल का मैदान है
जहाँ खेलते हैं दिन भर छोटे-छोटे बच्चे
इस पीठ पर
नहीं है क़िताबों से भरे
बस्ते का बोझ
इस पीठ को
नहीं करती मालिश माताएँ
इस पीठ को नहीं थपथपाते हैं उनके पिता
इस दस बरस की नाज़ुक-सी पीठ पर है
विधवा माँ और
दो छोटे भाइयों का भारी बोझ
रात गहरी नींद में
इस थकी पीठ को
अपने आँसुओं से देती है टकोर एक माँ
एक छोटी बहिन
अपनी नन्हीं उँगलियों से
करती है मालिश
सुबह-सुबह भरी रहती है
उत्साह से पीठ
इस पीठ पर
कभी-कभी उपड़े होते हैं
बेत की मार के गहरे नीले निशान
इस पीठ पर
प्यार से हाथ फेरो
तो कोई भी सुन सकता है
दबी हुई सिसकियाँ
इतना सब कुछ होने के बावजूद
यह पीठ बड़ी हो रही है
यह पीठ चौड़ी हो रही है
यह पीठ ज़्यादा बोझा उठाना सीख रही है
उम्र के साथ-साथ
यह पीठ कमज़ोर भी होने लगेगी
टेढ़ी होने लगेगी ज़िन्दगी के बोझ से
एक दिन नहीं खेल पाएँगे इस पर बच्चे
एक दिन ठीक से घोड़ा नहीं बन पाएगी
होगी तकलीफ़ बच्चों को
इस पीठ पर सवारी करने में
वे प्यार से समझाएँगे इस पीठ को
कि घर जाओ और आराम करो
अब आराम करने की उम्र है तुम्हारी
और मँगवा लेंगे
उसके दस बरस के बेटे की पीठ
वह कोमल होगी
ख़ूब हरी होगी
जिस पर खेल सकेंगे
मज़े से उनके बच्चे