पीड़ाएं पूछ लीं / औरत होने की सज़ा / महेश सन्तोषी
जो पीड़ाएँ मैं तुम्हारी आँखों में पढ़ रहा हूँ
वे प्यार की पीड़ाएँ नहीं हैं
रोटियों की हैं,
पेट की आग में तुम्हारी हाथों की
हल्दी ही नहीं झुलसी है
तुम्हारी मेहंदी रची हथेलियाँ भी झुलसी हैं
अपनी उभरती देह से ही परिचित नहीं तुम
प्यार से अभी तुम्हारा परिचय ही नहीं हुआ
जिन उंगलियों ने तुम्हारे शरीर को बार-बार छुआ
उनने तुम्हारे मन को एक बार भी नहीं छुआ
किसी के प्राणों की धड़कनों से
जन्मे, सिहरते, कांपते स्वर तुमने
अभी सुने ही नहीं
तुम्हारे प्रणय-संवादों का प्रारंभ तो
स्पर्शों से जन्मी ध्वनियों से,
स्वरों से ही हुआ
जो ओंठ तुम्हारे ओंठों का रस जी भरकर उलीचते रहे
उनकी पिपासा में अन्तर नहीं पड़ा
कब तुमने आँसू पिये?
कब दहकती आग पी है?
तुम्हारी मेहंदी रची हथेलियाँ भी झुलसी हैं...
जिन अभावों से होकर तुम गुजरती रहीं
उनमें एक अभाव सिंदूर का भी रहा
तुम्हारे प्रारब्ध में
जहाँ तक रहा प्रणय ही रहा,
प्यार कहाँ रहा?
तुम कितनी अकेली बनी रहीं
कभी जान ही नहीं सके
तुम्हारे, देह के साथी,
सारथी, हमसफर
एक हादसा-सा आँखों के सामने
शरीर के ऊपर से होकर गुजरता रहा।
मैंने अच्छा नहीं किया
जो तुमसे तुम्हारी पीड़ाएँ पूछ लीं
तुम्हारे शरीर पर तो
ये हादसा रोज का है
पीड़ाएँ हर रोज की हैं।
...तुम्हारी मेहंदी रची हथेलियाँ
झुलसी हैं