आज फिर बात चल निकली है
कि कितनी रातें काटी हैं हमने
आंखों - आंखों में
जख्मों पर चोट.....
दोगुणा दर्द देती है
फिर हमारा दर्द भी तो
बड़ा जिद्दी ठहऱा
यह तो तभी कम हो
जब मरहम हमें तुम
और तुम्हें हम लगावें
बेजरूरत के अपनेपन पर हंसी आती है
पता नहीं....
कोई उन्हें समझा क्यों नहीं पाता?
यहां ज्ञान और हमदर्दी की बातें
सब बेमानी हैं