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पीड़ा घर / जयप्रकाश कर्दम

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दर-दर ढूंढा पग-पग खोजा
देवालय से मदिरालय तक
वन, उपवन और नदियां-नाले
धरती से शिखर हिमालय तक
गली-गली हर कूंचे में
सुख ही था सुख ढूंढा सबने
नित करी कामना है सुख की
सुख ही के नित देखे सपने
पर हाय बना निष्ठुर कितना
सबको भरमाता रहता है
छलना सा मिलकर पल भर को
किस ओर कहीं खो जाता है
सुख को ढूंढा दु:ख को पाया
सुख छलना हाथ नहीं आया
माना जीवन का ध्येय जिसे
निकला वह सुख जीवन माया
सुख सपना है दु:ख अपना है
जीवन का घोर विरोधी सुख
दु:ख जीवन की संरचना है
सुख मिथ्या है दु:ख सत्य नित्य
दु:ख है जीवन का सूत्रधार
मन का आंचल सुख स्वागत में
पसराया फिर भी बार-बार
खो चुका ऊर्जा सब संचित
केवल सुख की अभिलाषा में
सुख को नहीं पाया आसपास
डूबा घनघोर निराशा में
सुख शक्तिहीन दु:ख शक्तिपुंज
सुख गतिहीन दु:ख गति गुंज
बुलवाए झूठ सिखाए छल
सब कुछ सुख नित करवाता है
सबने फटकारा, दुत्कारा
धिक्कारा और अस्वीकारा
फिर भी गाकर शांति गीत
दु:ख नीति धर्म अपनाता है
जितने रस्ते सब अनजाने
जितने चेहरे अनपहचाने
दु:ख का रिस्ता सबसे बढकर
बाकी रिस्ते सब बेगाने
अपनेपन का अहसास लिए
अपनेपन का विश्वास लिए
यह सम्बल दीन-दलितों का
वंचित के मन की आस लिए
सबका साथी सबका भ्राता
जन-जीवन से इसका नाता
ऊंचे-नीचे का भेद नहीं
सम-भाव सभी को अपनाता
दर्द कहो तुम या पीड़ा
समझो न मगर इसको क्रीड़ा
मानव को समझे दु:ख मानव
मानव को न समझे कीड़ा
जीवन के हर एक ठोर
पीड़ा का पाया संग-साथ
हर कष्ट, आपदा, संकट में
पीड़ा ने थामा सदां हाथ
पीड़ा ही मेरा मीत बनी
पीड़ा ही मेरा गीत बनी
पीड़ा के सागर में डूबा
पीड़ा मेरा संगीत बनी
पीड़ा ही मेरा गान बनी
पीड़ा ही मेरा मान बनी
पीड़ा है बनी जुबान मेरी
पीड़ा मेरी पहचान बनी
पीड़ित मानव का उच्छवास
मानवता का समवेत स्वर
मेरा अंतर पीड़ा का घर।