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पीले रंग की बुनाई / उद्भ्रान्त
Kavita Kosh से
जाड़े की धूप उमड़ आई
ठिठुर रही
किरणों के पंख खुल गए
मौसम में
मतवाले शंख घुल गए
रजतवर्ण
होंठों से
सूरज ने सोने की बाँसुरी बजाई
जाड़े की धूप उमड़ आई
पसर गई
दूर तलक गुनगुनी हवा
गुनगुनी हवा
कि प्राण की मदिर दवा
चित्रपटी पर नभ की
उभरने लगी पीले रंग की बुनाई
जाड़े की धूप उमड़ आई
कुहरीली
चादर में आग लग गई
पूरब की
परी पलक खोल जग गई
इठलाकर बढ़ी, और
सन्नाटे की उसने तोड़ दी कलाई
जाड़े के धूप उमड़ आई