पुकार / कुलवंत सिंह
सहिष्णुता की वह धार बनो
पाषाण हृदय पिघला दे।
पावन गंगा बन धार बहो
मन निर्मल उज्ज्वल कर दे।
कर्मभूमि की वह आग बनो
चट्टानों को वाष्प बना दे।
धरती सा तुम धैर्य धरो
शोणित दीनों को प्रश्रय दे।
ऊर्जित अपार सूर्य सा दमको
जग में जगमग ज्योति जला दे।
पावक बन ज्वाला सा दहको
कर दमन दाह, कंचन निखरा दे।
अति तीक्ष्ण धार तलवार बनो
भूपों को भयकंपित रख दे।
पीर फकीरों की दुआ बनों
हर दरिद्र का दर्द मिटा दे।
शौर्य पौरुष सा दिखला दो
दमन दबी कराह मिटा दे।
अंबर में खीचित तड़ित बनो
जला जुल्मी को राख कर दे।
सिंहों सी गूंज दहाड़ बनो
अन्याय धरा पर होने न दे।
बन रुधिर शिरा मृत्युंजय बहो
अन्याय धरा पर होने न दे।
अपमान गरल प्रतिकार करो
आर्त्तनाद कहीं होने न दे।
बन प्रलय स्वर हुंकार भरो
शासक को शासन सिखला दे।
पद दलितों की आवाज बनो
मूकों का चिर मौन मिटा दे।
कर असि धर विषधर नाश करो
सत्य न्याय सर्वत्र समा दे।
सृष्टि सृजन का साध्य बनो
विहगों को आकाश दिला दे।
बन शीतल मलय बहार बहो
हर जीवन को सुरभित कर दे।