पुण्य-पर्व / शचीन्द्र भटनागर
आने वाली शिवतेरस है
शिव के श्रवणकुमार जा रहे
सजी सुगढ़ काँवड़ काँधे हैं
शॉर्ट कैपरी हैं केसरिया
पाँवों में घुँघरू बाँधे हैं
मुँह में रखे भाँग के गोले
बोल रहे हैं बम-बम भोले
कभी नाचते हैं मस्ती में
चलते में लेते हिचकोले
बरस रहा नभ से
बादल बन शिव की
सरस भक्ति का रस है
भक्तिभाव से
गंगातट पर आकर वे
जल भर ले जाते
किन्तु पुरानी काँवड़, कपड़े
गंगाजी के बीच सिराते
पतितपावनी गंगा मैया
इनका भी उद्धार करेंगी
नहीं सोचते
जल में वे सब कितना
अधिक विकार भरेंगी
नासमझी से
मिलता गंगामाता को
कितना अपयश है
भक्त वहाँ कुछ ऐसे भी हैं
जो मन बहलाने को आते
जगह-जगह सत्कार देखकर
मस्ती करते, मौज़ मनाते
एक जेब में पव्वा रखते
एक जेब में पिसी भाँग है
काँवड़ या केसरिया कपड़े
केवल नाटक और स्वाँग है
तप का भाव नहीं है मन में
करनी उनकी
जस-की-तस है
यह श्रावण का पुण्य पर्व है
चाहो अगर परमपद पाना,
विल्वपत्र के संग-संग तुम
आधा कुन्तल दूध चढाऩा
रोगी बच्चा
झोंपड़पट्टी में चाहे भूखा मर जाए
या श्रम करती माँ का
बेटा एक घूँट पय को ललचाए
सबकी अपनी-अपनी क़िस्मत
नहीं नियति पर चलता बस है ।