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पुनर्निर्माण / महेन्द्र भटनागर

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उद्धारक लगा रहे आवाज़ —

‘पुनर्निर्माण करो,
पुनरुत्थान करो,
चिर-खंडित नष्टप्राय संस्कृति का,
आदिम युग के आदर्शों का !’

बीते वर्षों के रीते घट,
तम के पट पर विगत युगों की
सभ्यता, कला म्लान आज,
ढह गया महान पुरातन !
‘जीवन-सत्यों’ की लिपि
धुल गयी अरे !
फिर से बुझे दीप को आज जलाओ,
मानवता की उस दबी राह को
खोदो !
(खो दो !)

इस नवीन ज्योति की चकाचैंध में
आँखें पथराईं-सी,
इसको हलका करना यदि
तो फिर से दबा अँधेरा फेंको !
जिससे धर्मान्ध मनुष्यों की,
सामन्तों-पूँजीपतियों की,
राजा, थोथे नेताओं की
झूठी क़लई पर आग न आये,
आँच न आये !
डर है —
कि कहीं झूठा रंग उतर ना जाये !

बुद्धि अगर बढ़ जाएगी
तो शेरों की खालों में
छिपे हुए गीदड़
अब और न जीवित रह पाएंगे !
इसीलिए आज पुनर्निर्माण करो —
नूतन संस्कृति के
इस उगते तेज़ उजाले पर
अंधकार से
पुनरुत्थान से प्रहार करो !