भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पुनर्रचना / अम्बिका दत्त
Kavita Kosh से
एक-एक कर
झर जाते है
उसके सारे पुराने, पीले, पके हुए पत्ते
तब निर्वसन होती है
उसकी चिकनी, सुंती हुई, मांसल
ऊपर की ओर तनी हुई
लम्बी-लम्बी शाखाएँ
मौसम में से चुनती है/वह
अपने लिये
एक मन पंसद राग
हल्के से
उसके हाथों की अंगुलियों के पोरों पर
एक मुस्कान फूटती है
फिर, वह हँसने के लिये
अपने में से उगाती है
बहुत सारे, कोमल-कोमल
दुध-मुंहे पत्ते
हरे, लाल लिये हुए
अभी अभी हवा के साथ
कई पत्तों के साथ
खिल-खिला कर, हंसी है, वह !