पुनर्वार / महेन्द्र भटनागर
एक वीरान बीहड़
जंगल में रहता हूँ,
अहर्निश
निपट एकाकीपन की
असह्य पीड़ा
सहता हूँ !
मैंने
यह यंत्राणा-गृह
कोई
स्वेच्छा से नहीं वरा,
मैंने
कभी नहीं चाहा
निर्लिप्त
निस्संग
जीवन का यह
जँगलेदार कठघरा !
जिसमें
शंकाओं से भरा
सन्नाटा जगता है,
जीना
अर्थ-हीन अकारण-सा
लगता है !
समय-असमय
जब दहक उठते हैं
मुझमें
हिंस्र पशुता के
अग्नि-पर्वत,
प्रतिशोध-प्रतिहिंसा के
लावा नद
जब लहक उठते हैं
आहत
क्षत-विक्षत
चेतना पर,
तब यह
वीरान बीहड़ जंगल ही
निरापद प्रतीत होता है !
(सचमुच
कितना बेबस
मानव के लिए
अतीत होता है !)
यह गुंजान वन
यह अकेलापन
मेरी विवशता है !
मुझे
विवशता की पीड़ा
सहने दो,
दहने दो,
दहने दो !
जंगल जल जाएंगे,
लौह-कठघरे गल जाएंगे !
मैं आऊंगा
फिर आऊंगा,
निज को विसर्जित कर
सामूहिक चेतना का अंग बन
अन्तहीन भीड़ में
मिल जाऊंगा !
स्व के दंश जहाँ
तिरोहित हो जाएंगे,
या अवचेतना की
अथाह गहराइयों में
सो जाएंगे !