अब मैं सुन रही हूँ 
निज को 
इंकार कर रही हूँ 
चटकते वजूद को 
उतरने लगे हैं 
मन की गंध चेतना में
तुम्हारे कुछ अनिवार्य शब्द 
प्रार्थना से गूंजने लगे हैं 
अनुभूतियों के रेखाचित्र 
अब अकुलाने लगे हैं 
मन की मुंडेरों पर रक्खे
ज़ंग लगे सपने 
पुरवाई संग 
पोर पोर बजने लगे हैं 
तैयार कर ली है 
निज की हथेलियाँ 
खींच दी है रेखाएँ 
मुझ से होकर 
तुम तक पहुँचती जो
तुम्हारे पराए से लगते पलछिन 
अपने से होने लगे हैं