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पुरातत्त्व / असद ज़ैदी

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मुझे अक्सर तलब होती है
ग्वार की फली सेम की फली
अरवी के पत्ते देसी टिमाटर की
तरसता हूँ हर मौसम
जामुन सीताफल झड़बेरी को
अरे, उस खिरनी को जिसे अब
पहली नज़र में शायद न पहचानूँ
पर जो खारी बावली के फुटपाथ पर
मुझे पहचान ले और सोचे यह उजबक
कहाँ चला जाता है अजनबी बना
जो मेरे लिए बेमौसम तरसा करता था

ईसा की इक्कीसवीं सदी के दो दशक
पूरे हो रहे हैं दो बदमाश मुल्क की जान पे हैं
इनके पीछे कई करोड़ और भी हैं
उनकी मदद के लिए आ गई है महामारी
आदमख़ोर मनमोहिनी प्यारी राजदुलारी
करने शहरों बस्तियों को समतल और नाबाद
यह दौर अभी लम्बा चलेगा ख़ुशी से
सर्वसम्मति से कहते हैं टी० वी० चैनल पर
ग्यारह के ग्यारह नजूमी बिरहमन

दिल्ली में पहली बार कुछ नहीं होता
देस ही ऐसा है — नया भी पहले हुआ लगता है
क़त्ले आम हो कि महामारी कि भुखमरी,
कि शहर का सौन्दर्यीकरण, कि परिवार नियोजन
कोरोनावायरस पहले सेमिनार को रद्द करवाता है,
फिर उसे वेबिनार में बदल देता है
लाइव वर्कशॉप के इस निमंत्रण का मैं क्या करूँ
शहर की धरोहर पर ज़ूम के मंच से क्या बोलूँ

जिन्होंने देखी है, 1947-48 की दिल्ली
उनके सीनों में दफ़्न है एक और ही इतिहास
कैसे कहूँ यह बात
पुरातत्त्व और पर्यटन की इस कार्यशाला में