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पुरातत्ववेत्ता / भाग 3 / शरद कोकास

Kavita Kosh से
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एक लम्बा जुलूस है यह समय का
अपनी असमाप्त गति में अनंत की ओर बढ़ता हुआ
सिर ही सिर दिखाई देते हैं सिर्फ़ जिसमें
और कुछ चेहरे जिन्हें बार-बार दिखाया जाता है
यह महज संयोग नहीं
कि इसमें पीछे छूट गए हैं इतिहास के कुछ कमज़ोर लम्हात
जैसे अंतिम सिरे पर घिसटते हुए बच्चों के पाँव
लम्बी कतार में ठिठककर कहीं कुछ चीटियाँ
कुछ पंछी आकाश में अपनों से बिछड़कर
और किसी छोटे से स्टेशन के मुसाफिर
रेल की तेज़ रफ़्तार में
वे छूट गए हैं या छोड़े गए हैं
इसका जवाब किसी दबे हुए पत्थर के होंठों पर है

हर शाम जब खत्म होता है काम
वे अतीत से जैसे लौटते हैं वर्तमान में
कुछ देर सुस्ताकर फिर लौट जाते हैं वहीं
रहने की तरह हुए इस लौटने में उनके साथ आता है
यही कुछ छूटा हुआ
एक मुकदमा चलता है रात भर
एक भीड़ जुटती है बयानों की
एक जिरह चलती है उपेक्षा की मतलबपरस्ती से

कहने को बहुत कुछ छूटा हुआ रह जाता है फिर भी
कि उसका अब बतकही में ही कहा जाना संभव
या फिर उन वस्तुओं में
जो दिखने में बहुत छोटी दिखाई देतीं
मगर उसी में है बात का विस्तार
और प्रतिरोध खुद को नकारे जाने का
मसलन जानवर के जबड़े में अटका कैलसिडोनी पत्थर
जो किसी हंसिये की तरह दिखाई देता है
उसमें किसी किसान की मेहनत का बयान है
अकाल और भूख के अन्तर्सम्बन्धों की कथा है
पेड़ की छाल पर आदमी के दाँतों के निशान में
ताबूत में ठुकी सोने की कील में मृत्यु के उत्सव का वर्णन
और ढोल पर मढ़े चमड़े के एक सड़े टुकड़े में
जन्मना - कर्मणा विवाद से परे उपस्थित सच्चाइयाँ
हर कथा में आदि से अंत तक कथा तत्व मौज़ूद
और निर्वाह आवश्यकता और अविष्कार के सूत्र का

यह उन दिनों की बात है से शुरू करते हुए हर चीज़
उन दिनों का किस्सा बयाँ करती
जब मनुष्य इन चीज़ों का उपयोग करता था
और इन दिनों की बात पर खत्म करती
जब चीज़ें मनुष्य का उपयोग करने लगी हैं

वस्तुएँ पहले भी चमकती थीं मनुष्य की इच्छाओं में
ज़रूरतें ढालती थीं उन्हें अभावों की कर्मशाला में
एक मुकम्मल शक्ल तक पहुँचने में गुज़रते थे साल
गुफाओं की दीवारों पर कला परवान चढ़ती थी
इतनी ग़ैर ज़रूरी भी नहीं कि बेकार कह सकें

इच्छाओं के रूपाकार लिए अब भी मौज़ूद है वह
कला अकादमियों और कला दीर्घाओं से बाहर
भरी जवानी में भटकती कहीं गली-कूचों में
गुफाओं में कन्दराओं में और मनुष्य के अभावों में
उसकी आँखों में प्यार फ़क़त उनके लिए
जो गुम हुए बच्चे को ढूँढती माँ की तरह
दौड़े चले आते हैं व्याकुलता लिए
और क्रोध सिर्फ़ उनके लिए
जो उसकी नहीं दीवारों पर लगे पेंट की गुणवत्ता देखते हैं

पुरातत्ववेताओं के ड्राइंगरूम की दीवारों पर नहीं हैं
उत्खनन में मिले तीर कमान चाकू या भाले
जैसे कि किताबें होती हैं कुछ नवधनाढ्यों के घर में
या बस्तर से मँगवाया कोई मिट्टी का घड़ा
न ही किसी आदिम घोटुल का कक्ष उनकी बातों में
चटखारे लेकर बयान किया जाने वाला विषय
स्त्री की नग्न प्रतिमा में उन्हें नज़र आती है मातृदेवी
लक्ष्मी के उन्नत पयोधरों से छलकते दूध में वात्सल्य
कलश में देखते हैं वे उसी मातृसत्ता का गर्भाशय
जिसके बाहर पुरुष की यौन क्षमता का साम्राज्य है
मैथुनरत युग्मों में अंतर्निहित मनुष्य के जन्म का रहस्य
लिंग और योनि में प्रकृति का आदिम विश्वास
हर प्रतिमा के वस्त्राभूषण में युग की आर्थिक दशा का संकेत
वस्तुओं की निरर्थकता में भी अगणित अर्थ की संभावनाएँ

वे संभालते हैं इन्हें कि ये सिर्फ़ वस्तुएँ नहीं हैं बेजान
या कि हर चीज़ की संभाल है उनके स्वभाव में
ये अवशेष हैं अतीत के निर्भ्रांत निरपराध और मासूम
ताज़ा जन्मे बच्चे की तरह नाज़ुक प्रसव गंध से भरे हुए
जैसे कि जन्मते ही पहचाना जाता है नवजात
मनुष्य है वह पशु या पक्षी या पेड़
हर अवशेष में एक जन्मना पहचान दर्ज है

सहेजते हैं वे उन्हें कपड़े की नर्म थैलियों में
नाम वक़्त और तारीख़ लिखकर रखते हैं सुरक्षित
इसलिए कि जन्म के साथ ही शुरू होता है अवशेष होना
और जन्म और अवशेष बार - बार नहीं होते

वे तफ़तीश करते हैं उन्हें उचित हाथों में सौंपने से पहले
उनकी मंशा नहीं होती कि उनका अंजाम
समुद्र मंथन से निकले अमृत की तरह हो
जिसे देवताओं ने अपने हित में सुरक्षित कर लिया था

अभी अनभिज्ञता की नक़ाब में हैं वस्तुओं के चेहरे
अपने रूप में अपना हुनर छुपाए हुए
आश्चर्य कि चीज़ों की शक्ल मिलती है आजकल की चीज़ों से
जैसे कि हमारी मिलती हमारे पूर्वजों से
बस इसी बात पर उनके साथ बुरा सुलूक नामुमकिन
और वे समय का कबाड़ भी नहीं फेंकने लायक
कि भंगार से भी निकल आती हैं अक्सर काम की चीज़ें
जैसे गर्मियों में बिजली जाने पर हाथ का पंखा

फ़क़त इतना ही नहीं अर्थ उनके होने और पाने का
ज़रूरत और ईज़ाद के चालू फार्मूले से बाहर
हर वस्तु के बरअक्स उसका आशय मौज़ूद है
जैसे रगड़ से आग पैदा करने वाली तख़्ती में
भूख और अंधेरे के ख़िलाफ़ आदमी की लड़ाई
कब्र ढाँकने वाले पत्थर में जुगुप्सा का प्रतिकार
टूटी हुई चूड़ी में जीवन का टूटा हुआ विश्वास

आँख हर मनुष्य के पास है
और प्रकाश विपुल मात्रा में उपलब्ध
एक दृष्टि की दरकार है जो देख सके
पत्थर के कुल्हाड़े में शक्ति के अखाड़े
धारदार औज़ारों के बीच भोथरे हथियार
मिट्टी के टूटे साबुत बर्तन, हाथी दाँत के कंगन
भिक्षापात्र और कमंडल, पत्तों की बीड़ी के बंडल
ज़ेवर चिलम सुरमेदानियाँ और खिलौने
पत्थर की छत के नीचे घास के बिछौने
साबुत अनाज के दाने, जले हुए शहतीर
टूटे हुए धनुष ज़ंग लगे तीर
पेड़ के तनों में खुदी डोंगियाँ, बड़े बड़े जहाज़
कमज़ोर सपनों की अधूरी परवाज़
कुत्तों की हड्डियाँ, मछलियों के काँटे
रोटी के स्वप्न जो मेहनत ने बाँटे
बैलगाड़ी, रथ और इक्के, धातु के सिक्के
सिक्कों पर एक से नाम वाले राजाओं के एक से चेहरे
चेहरों से टपकती अनंत वासनाएँ
जो है उससे अधिक पाने की लालसाएँ
देह की गुफा में हवस के चित्र
अरि मित्र अरि, अरि अरि मित्र
जीवन के अनुभव कुछ कड़वे कुछ खट्टे
भूख के आँगन में स्वाद के सिलबट्टे
कमज़ोर के मन में विश्वास के फॉसिल्स
ताकत के खज़ाने में उत्पीड़न की मुहरें
बार - बार दम तोड़ती जिजीविषा के टुकड़े
दुख के गीतों में सुख के मुखड़े
आत्मा को तराशने वाले पुरोहितों के औज़ार
धर्म के नाम पर काल विभाजन करने वालों के हाथों में
कूटनीति के हस्तकुठार

(अरि मित्र अरि, अरि अरि मित्र अर्थात दुश्मन का मित्र भी अपना दुश्मन होता है लेकिन दुश्मन का दुश्मन अपना मित्र होता है।)

यह दुनिया है ज़मीन के नीचे कि चीज़ों का आकाश
या कचरे का कोई ढेर हमारे कद से बड़ा
नीम अंधेरे टहलने जाते हुए जिससे टकरा गए थे हम
जिसमें दबी थीं बीती रातों की अय्याशियाँ
और जीवन की संतृप्तता में उपभोग के अवशिष्ट
उठती थी सड़ांध ख़राब वक़्त की गुज़रे ज़माने से
वासनाओं की इल्लियाँ बजबजाती थीं जिसमें

इस तरह घृणा के क़ाबिल नहीं यह दुनिया
कि इसमें हमारी कमज़ोरियाँ और ख़्वाब भी हैं कुछ अधूरे
धूप से बचाती पेड़ों की छाँव, हवा में साँस लेने की सुविधा
ऊन की वही गर्माहट और जिमिकंद का वही स्वाद
ज़माने से आती हुई उफनते दूध की वही महक
जो हर सुबह हमारे बच्चों की नींद में दाख़िल होती है

कुछ कंकाल इसमें मनुष्य की चाहत के
भूख के लिए जो भूख के हाथों मारी गई
जो अपनी पत्तल में कन्द मूल परोसना चाहती थी
कि सिर्फ़ एक नुकीला पत्थर था उसके पास
और वह आदिम वक़्त के सबसे अमीर आदमी की चाहत थी

(ज़मीन से कंद - मूल खोदने की स्थिति में पुरापाषाण युगीन आदिम मनुष्य के हाथ लहुलुहान हो जाते थे l जब उसने उँगलियों की सहायता से वस्तु को पकड़ना सीखा और पत्थर के टुकड़े या हड्डी की सहायता से वह ज़मीन खोदने लगा तब उसका काम आसान हो गया। उन दिनों जिसके पास यह पत्थर होता था वह हाथ से ज़मीन खोदने वाले की तुलना में अधिक संपन्न कहलाता था )

कुछ पत्थर इसमें धैर्य के
जो एक पिता ने रखे थे अपने दिल पर
कि उसके बच्चे को उठा ले गया था रीछ
सो रहा था जब वो अपने सपनों की बगल में

कुछ प्रतिमाएँ इसमें जीवनदायिनी नदियों की
जो मकर और कूर्म जैसे जलचरों पर सवार थीं
बहती थीं इंसान की रगों में खून बनकर
अक्सर सूख जाती थीं युद्ध के दिनों में

( मकर वाहिनी गंगा और कुर्म यानी कछुए पर सवार यमुना की अनेक प्रतिमाएँ प्राप्त हुई हैं )

और अपनी हीनता में खड़े कुछ अर्द्धदेवों की
यक्ष उनमें कुबेर उनमें
जो सदा रहे पूजे जाने वाले देवताओं की जमात से बाहर
इस मलाल में कि पत्थर ही होते

( यक्ष और कुबेर अर्ध देवताओं की श्रेणी में आते थे जिनकी पूजा नहीं होती थी )

और कुछ शालभंजिकाओं की, कुछ अप्सराओं की
निर्वस्त्र देह पर निमित्त मात्र आभूषण लिए
जो मन बहलाती थीं देवताओं के या कि मनुष्यों के
शिल्प के इतिहास में सब गड्डमड्ड है

खुशियाँ मनाओ ढोल बजाओ मंगल गीत गाओ
फिर जनम ले रही है यहाँ एक पुरानी दुनिया
टूट पड़े हैं सैलानी और सौदागर सब बाहोश
नज़रें इन पर तस्करों की और लुटेरों की
कड़े पहरे नहीं हैं अभी सभ्यता के इस पर
धूल में लिपटी है यह आँखों में उम्मीद बाक़ी
भीड़ में कोई तो होगा
जो न देखे वह जो दिखाते दुनिया के गाइड
रोने की आवाज़ में जो सुर तलाश न करें विद्वान
किलकारी की कीमत जो पैसों में न आँके
कि अभी नाल तक नहीं कटी है
अभी खुली भी नहीं हैं पूरी तरह उसकी आँखें
और इस कदर उदास ख़ामोश और सहमी हुई
कि लो बोलियाँ शुरू हो चुकीं अब तो

सब कुछ है तैयार बिकने के लिए मंडियों में
कला हो या संस्कृति भूख या फिर देह
नोच लो लूट लो मौज करो और फेंक दो
जो ज़मीन के जितना नीचे उतने ज़्यादा उसके दाम
जिसकी कहानी ज़्यादा अजीब उतनी ज़्यादा उस पर बात
कि सुविधा का बाज़ार गर्म है उपभोग की परम्परा में
डालरों में आँकी जा रही ज़ंग लगे सिक्कों की कीमत
अतीत से ज़्यादा आकर्षक है उसका प्रदर्शन
संवेदनाओं के एवज़ में वसूला जा रहा है राजस्व
अपने पुरखों के श्राद्ध में अपनी दुकान लगी है

ख़ामोश हैं हमारे पूर्वजों के कंकाल
कि वे नहीं जानते थे अपनी त्वचा की कीमत
पसीना छलछलाता था दूसरों की सुविधा ढोते जिस पर
और उधेड़ दी जाती थी जो हवा की ज़रा सी ग़लती पर
उन्हें ढूँढ निकालने वालों के मुँह पर भी ताले हैं
कि यह ज़िन्दगी का मर्सिया है समय के क़ब्रिस्तान में
जहाँ इतिहास बंद है एक ताबूत के भीतर
उसकी चीख पर है अवहेलना का पत्थर
भरमाने वाली हैं उसे पुनर्जीवित करने की कोशिशें
जैसे मांत्रिक करता है विषहीन साँप के दंश का उपचार
पहचानता है अज्ञानता में व्याप्त भय
कि जिसे मरना ही नहीं है उसे जिलाने का नाटक क्यों
और जिसे मर जाना है उसका पुनर्जन्म नहीं होना
अजीबोग़रीब शक्ल में मौज़ूद है यहाँ विगत का वर्तमान
निर्धनों की किवदंतियों में जैसे सम्पन्नता के किस्से
तांबे के पंचमार्क सिक्कों के बीच आश्चर्य कि स्वर्ण ग़ायब

(पंचमार्क सिक्के - एक बराबर वजन के सिक्के काट लेने के बाद उन पर ठप्पे से कुछ विशेष चिन्ह बनाये जाते थे. इस कार्य के लिए पहले से बने ठप्पे को ताम्बे या चाँदी के इन टुकड़ों पर रखकर उस पर हथोड़े या वजनी वस्तु से चोट की जाती थी, जिससे ठप्पे के चिन्ह इन टुकड़ों पर बन जाते थे। यह सिक्के ठप्पे पर चोट करके बनाये जाते थे, इसलिए इन्हें पंचमार्क सिक्के (आहत सिक्के) का नाम दिया गया सिक्कों की धातु और उनके निर्माण के आधार पर राजा की सम्पन्नता का पता भी चलता था।)

सब कुछ जो पुरातन है
प्रतिमा हो परम्परा हो या हो विश्वास
घिरा है रहस्य के आवरण में
एक तिलिस्म है जो खींचता भी डराता भी है
अवशेषों से घिरा हर अवशेष अपने आप में अकेला है
सिर्फ़ शब्द हैं पुरानी किताबों में और अर्थ लापता
कल्पना के प्रतिशत का कोई पैमाना नहीं बखानों में
सच में झूठ मिला कितना कि पहचानना मुश्किल
बार- बार दोहराए गए किस्सों में इतिहास का भ्रम है
एक षड़यंत्र है विलुप्त को अपने पक्ष में उजागर करने का
यथार्थ के ‘ एक्सचेंज ऑफर ‘ में छद्म विपुल मात्रा में उपलब्ध
जो कह रहे थे इस दुनिया का कोई इतिहास नहीं
वे सभी इतिहास के अंत की घोषणा में मग्न हैं

दुखी नहीं पुरातत्ववेत्ता आधुनिक समाज के आचरण पर
न शर्म में धरती न गर्व में आकाश
खुश भी नहीं कि धर्म की प्रयोगशालाओं में
अग्निशामक की तरह उनके काम की मौजूदगी
अपनी श्रेष्ठता के आलीशान बिस्तर पर सोए हैं भाग्यविधाता
उनके खुशबू से भरे सपनों में फड़फड़ाते हैं
ताज़ा उत्खनन की रपट के कुछ पन्ने
जिसमें झाँकती है उनके रक्तपुरखों से पूर्व की एक सभ्यता
और राजभक्ति के लिए घोषित पुरस्कारों की सूची में
एक नाम जुड़ जाता है ठीक अगले दिन

न्याय के मंदिरों में पत्थर की मूर्तियाँ नहीं हैं
और प्रजातंत्र का इतिहास भी बहुत पुराना यहाँ
आस्था इस अर्थ में कि राष्ट्रवादी वही
जिसके पुरखों ने वसुंधरा पर कहीं भी जन्म लिया हो
और उसे निग्रिटो, प्रोटोआस्ट्रिलियाई, मंगोलियाई
भूमध्य सागरीय या अल्पाइन जैसी
किसी भी प्रजाति में
मानव देह धारण करने का अवसर मिला हो

(निग्रिटो, प्रोटोआस्ट्रिलियाई, मंगोलियाई भूमध्य सागरीय या अल्पाइन – सारे विश्व के मानव नस्ल के आधार पर इन्ही प्रजातियों के हैं, यह धर्म और राष्ट्र पर नहीं जींस पर आधारित हैं, धर्म और राष्ट्र हमने बनाये और फिर अपने आप को राष्ट्रवादी कहने लगे)

अपने लिए शब्दों की तलाश में है प्रजा का इतिहास
कि अब इशारे उसकी खिल्ली उड़ाते नादानियों में
अपनी मजबूरी में चुप बैठ जाना उसे गवारा नहीं
और दुनिया के भगवानों पर अब भरोसा भी नहीं बाक़ी
वहीं उसके बरअक्स लिखे राजाओं के इतिहास में
स्वयं अपने ही ईश्वर हैं राजा अपने ही नायकत्व में
बाद मरने के भी जिनका क़ब्ज़ा है तमाम शब्दों पर
कि जैसे वो जागीर है उनके पुरखों की बनाई हुई

( हम्मुराबी बेबिलोनिया का छठवां शासक था जिसने 1792 से 1750 ईसापूर्व तक राज्य किया, उसने सर्वप्रथम विधिसंहिता बनाई थी, जो एक काले पत्थर पर उत्कीर्ण थीl इतिहास में यह सर्वप्रथम विधि संहिता के रूप में मशहूर है l इसमें ऐसे कानून लिखे थे जो आम ग़रीब आदमी के पक्ष में नहीं थे l )
 
एक काले पत्थर पर खुदे शब्दों में लिखा था वह कानून
जो उतना ही काला था जितना राजा का दिल
हम्मूराबी के दिमाग़ में मंडराता था काले बादलों की मानिंद
जिसे वह सूर्य देवता का आदेश कहता था
मैं हम्मूराबी देवताओं द्वारा नियुक्त शासक मेरे राज्य में
प्राणदंड मिलेगा उसे जो भागे हुए दासों को शरण देगा

(मिस्त्र के राजा फराओं या फिराउन कहलाते थे l वे मरने के बाद अपने बनाये पिरामिडों में दफ़न किये जाते थे। कहा जाता है कि इन पिरामिडों के निर्माण के लिए बहुत संपत्ति खर्च की जाती थी फलस्वरूप जनता पर अनेक कर लगाये जाते थे, सो जनता हमेशा ग़रीब ही रहती थी )

(ओसिरिस मिस्त्र के एक देवता का नाम है जिसे मृत्यु अथवा मृत्यु के उपरांत जीवन का देवता कहा जाता था। एक आख्यान के अनुसार रेगिस्तान के देवता सेत ने ओसिरिस की हत्या कर दी थी लेकिन वह पुनर्जीवित हो गया। वह उस काल्पनिक लोक का शासक बना जहाँ मरणोपरांत आत्माएं वास करती हैं। मिस्त्र वासी पारलौकिक जीवन में बहुत विश्वास करते थे और बीमारियों के भय अथवा मृत्युभय के कारण ओसिरिस से डरते थे l शासक ग़रीब जनता की विवशता और उनके विश्वासों से लाभ उठाते थे l)
 
काली चट्टान की छाया में दुबकी थी आदमी की परछाईं
सूरज की पीली रोशनी में बीमार दिखाई देती थी प्रजा
फराओं के पाँव चूमती थी उनकी मजबूरी
और वे मंदिरों में देवताओं के संग विराजमान थे
प्रियदर्शी भी वही थे और वही स्वप्नदर्शी
जिनके नाम देवताओं को पसंद थे
गर्म हवाएँ घूमती थीं हाथों में दंड और पाश लिए
यह मृत - जीवितों के देवता ओसिरिस का फरमान है
मानना ही होगा उसे
वरना सूखा चाट जाएगा खा जाएगा प्लेग
दुश्मनों के हवाले कर दिया जाएगा जो अवमानना करेगा
कि तुममें वह ताक़त नहीं जो रक्षा कर सके तुम्हारी
कि हम ही हैं जो बचा सकते हैं तुम्हारी जान
और हमारी शरण में आने के अलावा कोई चारा नहीं

(नमरूद काबुल या शिनार, मेसोपोटामिया का शासक था जिसके बारे में कहा जाता है कि उसने स्वयं को ईश्वर घोषित कर रखा था। प्रजा को पड़ोसी देश के आक्रमण का भय दिखाकर राज करना यह राजनीति के अंतर्गत आता है। हमारे और पड़ोस के देश में अभी भी यही होता है, जनता को काल्पनिक भय दिखाकर और एक भय के वातावरण का निर्माण कर शासन किया जाता है और जनता का ध्यान वास्तविक समस्याओं की ओर से हटा दिया जाता है ताकि जनता अपने अधिकारों की मांग न कर सके l)