भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पुराना पेड़ / महेश वर्मा
Kavita Kosh से
वह दुख का ही वृक्ष था
जिसकी शिराओं में बहता था शोक
दिन-भर झूठ रचती थीं पत्तियाँ हंसकर
कि ढका रह आए उनका आंतरिक क्रँदन
एक पाले की रात
जब वे निःशब्द गिरतीं थीं रात पर और
ज़मीन पर
हम अगर जागते होते थे
तो खिड़की से यह देखते रहते थे
देर तक