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पुरानी किताब / अरविन्द यादव
Kavita Kosh से
आज एकाएक
दिमाग में कौंध गई
वही पुरानी किताब
जिसे देखकर और पढ़कर
चमक उठता था चेहरा
शायद मिलती थी आँखों को ठंडक
और दिल को सुकून
देखकर उसका आवरण
इतना ही नहीं
जब बैठता था अकेला
तो करता था
उसका ही चिंतन
उसका ही मनन
अचानक ही ख़्याल आया
वह तो पड़ी होगी अलमारी में
जब उठाकर देखा
धूल फांक रहे थे उसके पन्ने
आवरण को भी कर दिया था मैला
समय की धुंध ने
चूहों ने भी कुतर डाले थे जगह जगह
उसके वह सुन्दर पृष्ठ
जिन पर कभी गढ़ी रहती थीं मेरी आँखें
शायद अब वह नहीं रही थी
पढ़ने लायक
इसलिए रख दी चुपचाप
यह सोचकर
की बचाकर रखना है इसे
अब सिर्फ़ स्मृतियों में