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पुरानी नोटबुक / श्रीविलास सिंह

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कभी कभी
किसी पुरानी आलमारी में रखी
रद्दी हो चुकी तमाम चीजों को
यूँ ही उलटते पलटते
हाथ आ जाती है
कोई पुरानी नोटबुक,
कॉलेज के जमाने की
जो न जाने कैसे बची रह गयी
अब तक
रद्दी में बेच दिए जाने से
और भक्क से
यादों का एक झमाका
घूम जाता है आंखों के आगे
कैमरे के फ्लैश की तरह।

इसी कॉपी के किसी पन्ने पर
लिखे हैं कुछ नंबर
लैंडलाइन फ़ोन्स के
और कुछ पते भी।
उन खूबसूरत लड़कियों के
जो अब दादी नानी
बन चुकी होंगी
हो कर पचास के पार
मेरी ही तरह।

क्या उनके पास भी होगी
ऐसी कोई नोटबुक।
जिनमे होंगे ऐसे ही
कुछ फोन नंबर
जो डायल नहीं किये जा सके
उन दिनों की
सारी सरमस्ती के बावजूद
और पते भी
जहाँ कभी जाया नहीं जा सका
हालांकि उन गलियों में
जाना प्रतिबंधित नहीं था।
न जाने कितने
प्रेमपत्र लिख कर
फाड़ दिए गए
उन्हीं पतों पर भेजने के लिए,
एकाध अभी भी
बचे हुए हैं
इसी कॉपी के पन्नों पर।

क्या अब भी
डायल किये जा सकते हैं
वे नंबर,
क्या अब भी भेजे जा सकते हैं
प्रेमपत्र
उन पतों पर।
क्या अब भी वहाँ रहती होंगी
वही खूबसूरत लड़कियाँ
रीता, नीरू, कुसुम या इंदु
या सब कुछ बदल गया होगा
हो गया होगा पुराना
इस पुरानी कॉपी की तरह।

शायद ज़रूरी होता है
फ़ालतू कामों को छोड़ कर
साहस करना
फोन नंबर डायल करने के लिए
सही समय पर
और उस गली में जाने के लिए भी।
प्रेमपत्र लिखने के बाद
उसे पोस्ट करने को भी
हिम्मत की दरकार होती है।