भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पुल नहीं है / रमेश चंद्र पंत
Kavita Kosh से
पाट हैं दो
किंतु कोई
पुल नहीं है !
बैठ जाती है
हवा जब
पास थककर
काँप उठती है
नदी की
धार अक्सर
थरथराना
इस तरह तो
हल नहीं है !
सीप-शंखों ने
बुने हैं
स्वप्न मिलकर
पर लहर
बैठी हुई है
होंठ सिलकर
सिलसिला यह मौन का तो
कल नहीं है !