प्रात के नहाय कुश-मुद्रिका वनाय, देवरी देवहरामें जाय फूल पात भौनको भरै।
कन्द मूल खाय कौन कन्दला छपाय, योग कौन धौं कमाय जाय भुईंहरामें कोपरै॥
आगि को वराय देह वाँधि के झुलाय वो, देशंतरी कहाय के हिमाल ज्वाल को जरै।
एक राम राय जो हियामँ ठहरायनीक, धरनी कहै तो लाय धंध जग को मरै॥33॥