भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पूरनिया / हरीश भादानी
Kavita Kosh से
पूरनिया
समुंदर के मुहाने
एक नन्हें शिशु को जन्म देने
जिजीविषाएँ ?
टीसती हैं रात भर तो टीस लेने दो उन्हें,
गुम-सुम
टहनियों की गुँडेरों से उठे
वन पाखियों के स्वर सरीखी साँस
जो बुनने लगे
झीनी हवा का एक कुर्त्ता
एक टोपी बुनने दो उसे
वीथियाँ धोती
खुले आँचल पिलाती दूध,
धूप सी आँखें
पसरती जायँ आगे तो पसरने दो उन्हें-
कुआँरे बाप सा भीरू अँधेरा
कहीं सूरजमूखी सान्दर्भ की हत्या न कर दे !