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पूरी कायनात का बदन निचोड़ आया हूँ / जंगवीर सिंंह 'राकेश'
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पूरी कायनात का बदन निचोड़ आया हूँ
मैं किसी के हुस्न को ग़ज़ल से जोड़ आया हूँ
तूफ़ाँ जैसे कहर का घमंड तोड़ आया हूँ
मैं सुनामी की कलाई तक मरोड़ आया हूँ
तेरे कूचे से निकल के मैं किसी परिन्दे-सा
चोटी की कहानियों का वहम तोड़ आया हूँ
मौसमों को जिस जगह प कैद करके रक्ख़ा था
सुब्ह, ओस का वही सिफ़र मैं फोड़ आया हूँ
'वीर' अपने काँधों पे उठानी होगी अपनी लाश
सारे रिश्ते अब ज़माने से मैं तोड़ आया हूँ।