भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पूर्ण स्वच्छन्द हूँ मैं / उर्मिल सत्यभूषण
Kavita Kosh से
हवा हूँ हवा मैं
निर्बन्ध, निर्द्वन्द्व हूँ
पूर्ण स्वच्छन्द होकर
हो जाती बंद हूँ
प्रणय के गीतों में
जब भरती छंद हूँ
सांस की सितार में
मेरी झंकार सुन लो
प्यार के एहसास से
सराबोर कर दूँगी
ज़िंदा दिली के जाम
तुम को पिलाकर मैं
वापिस मुड़ जाऊंगी
अन्य दिशा से उठती
आर्त्त पुकार से
जाकर जुड़ जाऊंगी।