पूसा की रात / जनार्दन राय
पूसा की रात एक ऐसी रही,
कविता-कहानी में कटती रही।
नगरी यह शोभा की ऐसी लगी,
रूपों की रानी यह बनती लगी।
अपनी ही ओर सदा खींचती रही,
पूसा की रात एक ऐसी रही।
भूल नहीं पाता हूँ फूलों का देश,
सौरभ, सुहाना अनूठा यह वेश।
रंगीनियाँ रंग फेकती रही,
पूसा की रात एक ऐसी रही।
कमनीय कामना-कहानी चली,
गिरिजा के संग शोभती थी भली।
सबको थी बरबस वह रोकती रही,
पूसा की रात एक ऐसी रही।
ज्ञानी गणेश का जो गीत था सुना,
संगीत छात्राओं का जो सुना।
भाव-नृत्य याद थी जगाती रही,
पूसा की रात एक ऐसी रही।
गेह रत्नेश्वर का था ऐसा यहाँ,
भूपेन्द्र का साथ मिलता जहाँ।
रह-रह के रत्न विभा बाँटती रही।
पूसा की रात एक ऐसी रही।
जोड़ी अनूठी नसुल्ला की थी,
कमनीय कान्ति संग गंभीर थी।
सन्तोष से थी खिलाती रही,
पूसा की रात एक ऐसी रही।
विष्णुदेव पूजा जब करने चला,
प्यारे नरेश को जो ढूंढ़ने चला।
राह की जो रोशनी चमकती रही,
पूसा की रात एक ऐसी रही।
कोमल कमल सी थी धरती वहां,
प्रेम की कली रहती खिलती जहां।
नेह-मेह की ही वृष्टि होती रही,
पूसा की रात एक ऐसी रही।
कविता-कहानी को सुनता रहा,
मुक्तक नरेश का था चलता रहा।
गीतों की गंगा थी बहती रही,
पूसा की रात एक ऐसी रही।
शोभा ने ऐसा स्वर गुंजा दिया,
गजलों का, गीतों का गायन किया।
जयरानी जीत गीत प्रीत कह रही,
पूसा की रात एक ऐसी रही।
नभ था निज चान्दनी लुटाता रहा,
अपनी विभा को दिखाता रहा।
भोजन औ भाव की नदी थी वह रही,
पूसा की रात एक ऐसी रही।
ऐसे नगर को भी तज जा रहा,
विधि के विधान को भज जा रहा।
विद्या विभूति बाँटती जो रही,
पूसा की रात एक ऐसी रही।
सन्ध्या, निषा, उषा किसी से न कम,
सुख, शान्ति रूप लुटाती जो रही सम।
आनन्द में दिन कटे औ रात कट रही,
पूसा की रात एक ऐसी रही।
पूसा की रात एक ऐसी रही।
कविता-कहानी में कटती रही।
-विभा निवास, पूसा।
15.2.1983 ई.