लंबे समय से प्रतिकूल लहरों के बहाव में हूँ 
नहीं जानती पानी का यह रेला 
कहाँ बहा ले जायेगा मुझे 
विकराल जल प्रपातों की उत्ताल लहरों पर 
मैं चित पड़ी हूँ या पट
मुझे नहीं मालूम 
मेरी आखों के सामने 
न कोई वस्तु है न विचार 
न प्रतिकार है न स्वीकार
बस कोहरे का एक समुद्र है 
जिसका न कोई ओर है न छोर 
निष्क्रिय आवेग से भरी मेरी चेतना में 
शत् शत् सूर्य के तिरोहित होने का 
नीला अंधकार व्याप्त है 
आकाश गंगा में डूब गये हैं 
रूपहले नक्षत्र
रूप रंग रस गंध से भरी पृथ्वी
कहाँ हो तुम ?
ओ मेरी आत्मा की राग भरी रोशनी                          
कहाँ हो तुम ?
धरती का धीरज लेकर
गहन गुह्यलोक में 
विस्थापित मेरी चेतना 
तुम्हें टेर रही है 
पृथ्वी - पृथ्वी - पृथ्वी
कहाँ हो तुम ?