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पृथ्वी की भंगुर सतह पर / प्रभात त्रिपाठी
Kavita Kosh से
हज़ार बरस पहले के तारे को
देख रहे हैं हम अभी
खिलखिलाती किसी मुक्ता की हँसी में
इस पेड़ के नीचे
हज़ार बरस बाद
औरत के रसोईघर
बेटे की नींद के समय में
हम पाते हैं
अपनी प्रार्थना का एकान्त
वृक्ष के विनम्र मौन में
गढ़ते अपने आकार की तुच्छताएँ
हम खड़े हैं
विस्फोटों की ढूह पर
निर्विकार शान्त
लपलपाती घृणा से बेख़बर
हम अपनी माँद में
खोज रहे हैं
अपना पूजाघर
हज़ार बरस पहले
हज़ार बरस पहले
पृथ्वी की भंगुर सतह पर
हम खिलाते हैं फूल
कमल के !