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पृथ्वी / वीरू सोनकर

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हम संवाद करते थे
और आसमान अपना रंग बदल लेता था
हम घर से निकलते थे,
तो चार गाँव आगे खेत की जमीन और उपजाऊ हो जाती थी
हम छूटी जा रही बस को हाथ देते थे
और सड़क नदी के किनारे में बदल जाती थी!

हम ठहर-ठहर पहाड़ चढ़ जाते थे
और नीचे झाँकते थे,
हमारा भय कह उठता था तुम बहुत बड़ी हो पृथ्वी!

पृथ्वी चुपचाप उससे भी बड़ा
एक और पहाड़ खड़ा कर देती थी