पेड़ों पर उगते कारतूस / शरद कोकास
पिछले बसंत में
पेड़ों की टहनियों ने
यकायक
अख़्तियार कर लिया था रूप
बन्दूकों का
पत्तों की जगह
उगने लगे थे कारतूस
कलियों की जगह गोलियाँ
और फूलों की जगह ले ली थी
बमों ने
हमारे बच्चे
सुबह सुबह उठकर
पेड़ों के नीचे से चुनकर लाते रहे बम
जिन्हें पत्थर की मूर्तियों पर
चढ़ाते हुए
महसूस करते रहे हम
रातरानी की महक में शामिल
बारूद की गन्ध
लेकिन खुशबू का भ्रम पाले हुए
बन्द कर लीं हमने अपनी आँखें
सी लिए अपने अपने मुँह
हम करते रहे कामना
दीर्घायु होने की
हम सींचते रहे अनजाने में उन पौधों को
अपनी आँखों पर बन्धी पट्टी
हटाई नहीं हमने
उम्मीद करते रहे
पीली जर्जर होकर गिर पड़ेगी
यह दहशत
इस पतझड़ में
सोचते हैं हम अब भी
कब खत्म होगा यह तनाव
यह असुरक्षा का भाव
उपजेगा कब विश्वास
कब आयेगा मधुमास
कब बसंत के आने की सूचना देगी
शांति की हवा
क्या यह केवल
सोचने से सम्भव है।