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पेड़ की छाँव में बिस्तरा रहने दो / अविनाश भारती

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पेड़ की छाँव में बिस्तरा रहने दो,
मैं जो हूँ मुझको वह भी जरा रहने दो।

चाँद, तारे, फ़लक सब मुबारक़ तुम्हें,
मेरे हिस्से मेरी ये धरा रहने दो।

है ज़रूरी बहुत ये ग़ज़ल के लिये,
इसलिए ज़ख़्म मेरा हरा रहने दो।

चल सको तो अकेले चलो धूप में,
कारवां को मरा का मरा रहने दो।

आप 'अविनाश' मुझपे रहम ये करो,
हूँ अगर मैं बुरा तो बुरा रहने दो।