भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पेड़ की डायरी (एक) / कुमार कृष्ण

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बादलों के बाहुपाश से निकल कर
गीले कपड़ों में आई एक नदी मेरे पास
उसने कहा-
मैं रहना चाहता हूँ हमेशा-हमेशा के लिए तुम्हारे साथ
मैंने छुपा लिया उसे
छुपा लिया अपने ओवर कोट में
एक दिन कहने लगी मैं थोड़ा घूम आती हूँ
लौट आऊँगी रात होने तक
तुम तब तक जागते रहना
दिन बीतते गए
उस दिन के बाद नहीं लौटी नदी
मैं करता रहा इन्तजार
जागता रहा दिन-रात
एक दिन आई मेरी मित्र सोने के पंख वाली चिड़िया
कहने लगी-
मैंने सुनी है नदी के रोने की आवाज
जिसे छुपा कर रखा था तुमने
अपनी जड़ों की सन्दूक में
उसे चुरा लिया है कुछ लोगों ने
बाँध दिए हैं उसके पाँव
काट डाले हैं उसके पंख
छीन ली है उसकी आवाज़ उसकी चंचलता
बस मत सुनाओ मुझे उसकी दुःख भरी दास्तान
मेरे पास बचा है बस नदी का स्पर्श
बची है नदी की गन्ध
बचा है नदी का झपकी भर प्यार।