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पेड़ / सुरेन्द्र रघुवंशी
Kavita Kosh से
जितना ऊपर लहरा रहा है हवा में
गर्वोक्त और तन्मय स्वत्व में
उतना ही नीचे गहरा है पेड़
अपनी विस्तृत जड़ों के विन्यासित जाल में
बरसों बरस अनगिनित आँधियाँ सहकर भी
यूँ ही नहीं खड़ा है यह आसमान से बातें करता हुआ
अपनी मस्त डालों में झूलती कच्च हरियाली
आती है धरती के नीचे के अदृश्य अँधेरे स्थानों से
अपने चेहरे की लालिमा और चमक भी
अपने पुरखों से स्थानान्तरित होकर आती हैं हम तक
जिनसे असम्प्रक्त है हमारी पीढ़ी
इस हद तक कि उनके ज़िक्र तक को
अतीतगामी कहकर दरकिनार किया जा सकता है
इस तेज़ रफ़्तार जोशीली युवा दौड़ में
नहीं है कोई स्थान दर्शक के रूप में भी
बूढ़ी, उदास और आशान्वित आँखों के लिए ।