पेसेंजर ट्रेन / नेहा नरुका
सुबह छह बजे की पेसेंजर में बैठकर
सावन में अपने घर जाते
कितनी ख़ूबसूरत लगतीं वे यात्राएँ
तरह-तरह के लोग मिलते
कुछ अजीब-ओ-ग़रीब, कुछ सामान्य और ज़्यादातर बेहद मामूली
जिनसे बातें होती, बहसे होतीं
फिर सब हँसकर पापड़, नाशपाती और समोसे खाते
पर कुछ सालों से ऐसा नहीं होता
लोग मिलते हैं,
शिक्षित और सुसज्जित लोग मिलते हैं
राष्ट्र पर गर्व करने वाले लोग मिलते हैं
भारत माता की जयजयकार के साथ-साथ
माँ-बहन की गाली पर अट्टहास करने वाले
लोग मिलते हैं
बेहद मामूली लोग भी मिलते हैं
मगर इस तरह जैसे वे 'ग़ायब' फ़िल्म के तुषार कपूर हों
एक यात्रा के दौरान रेल में मिले
एक राष्ट्रवादी लड़के ने मुझसे कहा — देशद्रोही
लड़के का यह शब्द मेरे कानों मे यात्रा के बाद भी बजता रहा
मैं उसे कैसे बताती कि मेरे घर के दो फ़ौजी बूट
बम के बिछौने पर सुस्ता के लौटे हैं
एक कॉम्बैट ड्रेस का पसीना अभी भी चू रहा है
जंग लगे काले बक्से में एक डायरी है, जिसमें देशभक्ति को काटकर नौकरी लिखी गई है
अब घर जाते ही जाने-पहचाने चेहरे मिलने नहीं आते
आ भी जाएँ तो मन ही मन गाली देकर जाते हैं
यक़ीन ही नहीँ होता कि ये चिरपरिचित चेहरे कभी अपने थे
इनके ही साथ रखे थे कभी सावन के चार सोमवार
सोचती हूँ — अगर मैंने कुछ लेखकों को नहीं पढ़ा होता
तो हो सकता है मैं भी उन जैसी ही होती
गर्व में डूबी
तमाशे में शरीक
बाज़ार के इशारों पर नाचती कठपुतली
जिन किताबों ने मुझे मुहब्बत से छुआ
और मुझे जॉम्बी बनने से बचा लिया
यह कविता दरअसल उन्हीं के कंधों पर सिर रखकर एक बार फिर से रोना है
सुबह छह बजे जागकर सोचना है इस धरती के बारे में,
जिसपर मैं रहती हूँ,
हर दिन मरती हूँ और जीती हूँ
मुझे किताबों से हमेशा से ही प्रेम था — विशेषकर साहित्य की किताबों से
और संघियों की किताबों से बेहद नफ़रत, क्योंकि मेरे स्कूल की सबसे अच्छी दोस्त एक मुस्लिम थी
उसके ख़ून, ज़ुकाम, आँसू और पसीने का स्वाद ऐन मेरे जैसा ही था,
और है
मगर यह बात पैसेंजर ट्रेन वाला लड़का नहीँ समझ सकता ।
________________________________________
2014-2024