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पैग़ाम-ए-मौहब्बत / शमशाद इलाही अंसारी
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नफ़रत के बदले प्यार को लुटा रहा हूँ मैं
सदियों पुरानी रस्म को ठुकरा रहा हूँ मैं
मेरी ज़ात को समा ले अपनी ही ज़ात में
है बचा खुचा जो चेहरा वो मिटा रहा हूँ मैं
गीतों में मेरे ख़ुशबू अब होने लगी दोबाला
अब इनमे तेरी रंगत को मिला रहा हूँ मैं
नगमे वफ़ा के शायद निकले तुम्हारी रूह से
यही सोच शेख साहिब तुझे पिला रहा हूँ मैं
तेरे मतब पे जाकर भी इन्सां बना रहूँगा
तेरी रिवायत की जड़ें हिलाने जा रहा हूँ मैं
देता रहा वाईज मुझे जो हिदायत की घुट्टियाँ
पीकर जो आई होश उसे वही पिला रहा हूँ मैं !
जब से बनाया तुझको आशार का मज़मून
चारों तरफ ये चर्चा है कि छा रहा हूँ मैं !
रचनाकाल: 06.06.2010