पैर छूना / गिरिराज किराडू
हर बात झूठ लग रही थी अपने रेगिस्तानी शहर से डेढ़ दो हजार किलोमीटर सुदूर दक्षिण में उसी शाम उसे देखने एक लड़का एक होटेल में आएगा माँ बाप ने तय किया है फ़ोन पर बात भी कराई गई सब फ़र्जी मेरा दिमाग़ तो एक टूर इंचार्ज अध्यापक की तरह काम कर ही रहा था मेरी क्लास में छह महीने का बहीखाता भी हक में नहीं था उसके कि तभी अचानक एक उपन्यासकार जैसा जोख़िम उठाते हुए कहा जाओ दो घंटे में लौट आना वर्ना अध्यापक ने फ़र्ज़ अदायगी की वह अपने कमरे में गई थैंक्स बोलते हुए मैं उपन्यासकार से झगड़ता हुआ वहीं खड़ा रह गया दसेक मिनट में वह कमरे से निकली तैयार जींस छोटा-सा टॉप अभिसारिका मेरा नायिका भेद बोला बेहद अटपटेपन से उसे देख रहा था कि वह पास आई और सीधे मेरे पैर छू लिये बिना किसी नाटक के फिर से थैंक्स और चली गई
अपने को सबसे बेहतर समझने वाला उसका उद्दंड आत्मविश्वास छह महीने में कई बार टकरा चुका था मुझसे पैर छूना मास्टर के ठीक नहीं था यह तब जितना साफ़ था मेरे लिए आज भी उतना ही साफ है समय से कुछ पहले ही लौट आई मैंने वह कॉलेज छोड़ दिया उसके अगले साल सितम्बर को एक एस०एम०एस० आया आपके फैसले हमेशा याद रहेंगे मुझे
दूसरी बार और भी अजब हुआ दूर की एक हमउम्र रिश्तेदार सिर्फ़ दूसरी बार मिल रहा था जाते-जाते पैर छू लिए कुछ बहुत बड़ा फैसला लेना है मन पक्का कर लिया है आपका आशीर्वाद चाहिए उसके चार दिन बाद उसने भाग कर अपने चचेरे भाई से शादी कर ली
आज तक समझ नहीं पाया दोनों बार ऐसा क्यूँ हुआ क्यूँ इन दो लड़कियों ने छुए मेरे पैर क्यूँ पूरे नहीं हो सकते थे उनके काम मेरे आशीर्वाद के बिना इसका कहीं इस बात से तो कुछ लेना-देना नहीं कि बहुत क़ायदे से न सही पर दोनों को पता था कुछ राइटर वगैरह हूँ