भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पैसा तो खुशामद में, मेरे यार बहुत है / ‘अना’ क़ासमी
Kavita Kosh से
पैसा तो खुशामद में, मेरे यार बहुत है
पर क्या करूं ये दिल मिरा खुद्दार बहुत है
आओ न फ़क़त कर लो ये इक़रार बहुत है
तुम फोन ही कर दो कि मुझे प्यार बहुत है
इस खेल में हां की भी ज़रूरत नहीं होती
लहजे में लचक हो तो फिर इंकार बहुत है
रस्ते में कहीं जुल्फ़ का साया भी अता हो
ऐ वक्त तिरे पांव की रफ़्तार बहुत है
बेताज हुकूमत का मज़ा और है वरना
मसनद<ref>सिन्हासन</ref> के लिये लोगों का इसरार बहुत है
मुश्किल है मगर फिर भी उलझना मिरे दिल का
है हुस्न तिरी जुल्फ़ तो ख़मदार<ref>लच्छेदार</ref> बहुत है
अब दर्द उठा है तो ग़ज़ल भी है ज़रूरी
पहले भी हुआ करता था इस बार बहुत है
सोने के लिये क़द के बराबर ही ज़मीं बस
साये के लिए एक ही दीवार बहुत है
शब्दार्थ
<references/>