पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ.... / ऋषभ देव शर्मा
मैंने
किताबे पहन रखी थीं,
औरों से अलग दिखता था,
तुम खिंची चली आई
मेरी ही तरह किताबों को ओढ़े हुए|
अक्सर हम दोनों
पास –पास रहते,
पर चुप रहते,
हमारी किताबे आपस में बाते करती
और हम प्रमुदित होते|
उस दिन
जब बाहर बहुत बरसात थी
तुम्हारे नकाब की किताब का
एक पन्ना गलकर बह गया
और मैंने
तुम्हारा एक रोम देख लिया
भीतर कुछ ऐसी बरसात हुई
कि मेरी पोशाक की एक किताब पूरी गल गई|
मैंने दूसरी किताब से
पोशाक में पैबंद लगाने की
कोशिश करते हुए
चोर नजरों से तुम्हारी ओर देखा|
तुम
निर्निमेष ताक रही थीं
फटी पोशाक में से झाँकती हुई
मेरी मांसपेशियों को|
मैंने जल्दी से
पैबंद सी दिया
और तुमने भी
अपने नकाब पर दूसरा नया पन्ना
चिपका लिया|
बार-बार हुआ ऐसा,
हर बार मैंने नया पैबंद लगाया,
हर बार तुमने नया पन्ना चिपकाया|
किताबें पहले की तरह
बातें करती रहीं
और हमारे बीच संवाद नहीं हो सका|
उस दिन
बरसात के बाद की तेज धूप में
मैंने अचानक
भीगी किताबें
सूखने के लिए उतार दीं
तो तुमने
आतंक,विस्मय,लज्जा और संकोच से
आँखें मींच ली थीं
और मैंने झट से
क्षमा मांगते हुए
फिर से किताबे पहन ली थीं|
रात भर सो नहीं सका था मैं,
सोचता रहा था
उस क्षणिक हलकेपन के बारे में
जो किताबों की भारी पोशाक
उतारने पर महसूस हुआ था|
उस रात
मैंने निश्चय किया
कि
अब से कैद नहीं रखूँगा स्वयं को
किताबों कि इस भारी पोशाक में|
अगले ही दिन
मैंने अपने चारों ओर जमे
पुस्तकालय को हटा दिया
और
तुम्हारे आँख मीचने की
परवाह किए बिना
तुम्हारे कानों में
अनुनयपूर्वक फुसफुसाया था–
क्या मैं
तुम्हारे नकाब में
चीनी छुई किताबें
नोंच सकता हूँ?
जवाब में तुमने
एक बार कोमल दृष्टि से
मुझे देख था
और पलकें झुका ली थीं|
मैंने किताबों की ईंटों को
छूकर
फिर पूछा था–
नोंच दूँ?
जवाब में तुमने
अर्थपूर्ण दृष्टि से
मुझे देखा था
और मैंने साहस करके
एक किताब नोंच ली थी|
झरोखे में से
मेरी गंध भरी हवा का एक झोंका
तुमसे टकराया था
और तुमने गहरी साँस लेकर
मेरी और देखा था
कृतज्ञता के भाव से|
देखकर
पलकें
फिर से झुका ली थीं|
मैंने डरते हुए कहा था–
तुम चाहो तो
इस किताब को
फिर वहीं चिपका दूँ?
तुमने लजाते हुए
कहा था...
नहीं !
उस क्षण मैं तुम्हारे
और निकट आ गया,
मैंने धीरे से
तुम्हें छुआ
किताब नोचने से बने झरोखे में से|
तुम्हारे होंठों पर
सिसकी बनकर
अनहद नाद उभरा;
और मैंने
तुम्हारे अस्तित्व पर चिपकी
दूसरी किताब नोंच दी|
धीरे से
फिर तुम्हें छुआ,
फिर वही मादक
अनहद नाद उभरा|
फिर एक किताब और ...
एक किताब और ...
एक किताब और ....
फिर एक छुअन और ....
एक छुअन और ....
एक छुअन और....
फिर एक सिसके और ....
एक सिसकी और ....
एक सिसकी और....
तुम्हारी चेतना के आकाश में
गुंजायमान
अनहद नाद में
डूब गया मैं,
डूब गई तुम,
डूब गए हम दोनों|
डूबे तो ऐसे डूबे
कि तिर गए|
औंधे घट के
पीयूष रस में स्नान करके
समुद्र की सुनहरी रेत पर
हम दोनों
पसर गए|
हमारे अस्तित्व को उस दिन
पहली बार छुआ –
महकती हुई धरती ने,
गमकती हुई हवा ने,
लहराते हुए पानी ने,
सहलाती हुई आग ने
और गाते हुए आकाश ने|
किताबों से बाहर निकलने के बाद
उस दिन
देर तक नहाते रहे थे हम दोनों
इसी तरह|
और तब
आदित्य, चंद्र और नक्षत्रों ने
हमारी धुली हुई आत्मा पर
एक शब्द लिखा था ..
ढाई आखर ‘प्यार’ का !
उस दिन
हम सचमुच पंडित हो गए थे
‘प्रेम’ का ढाई आखर पढ़कर|
हमें मिल गया था
जीवन का रहस्य
और
मुक्ति का मार्ग
उस दिन के बाद से
हम विचरते रहे
मोक्ष में
बिना पोशाकों के
हमने चाँदनी रातों में प्यार किया,
हमने अंधरों में प्यार कि बिजलियाँ चमकाईं,
हमने सवेरों में प्यार के फूल खिलाए,
हमने दुपहरी में प्यार के बादल बरसाए ,
हमने साँझों में प्यार के गीत गुनगुनाए;
और
हमें कभी
किसी पोशाक कि जरूरत नहीं पड़ी,
किसी किताब की जरूरत नहीं पड़ी|
हमारी आत्मा पर अंकित
ढाई आखर ही
अब हमारा पुस्तकालय था,
विश्वकोश था|
बहुत सुखी थे हम
आनंद में खोए हुए
कि तभी
उस आधे चाँद कि रात में
मैंने पाया
तुम्हारे एक कोने पर चिपका हुआ
एक किताब का पन्ना|
मैंने सहज भाव से
तुम्हारे वजूद पर से
नोचने कि कोशिश की
कागज के उस पन्ने को
बिना तुमसे अनुमति माँगे|
पन्ना अभी जरा सा ही फटा था
कि तुम चीख उठीं ...
नहीं!
शायद
तुम्हें याद आ गया था
कोई पुराना अनुभव|
मैं डर गया था;
और उसी हड़बड़ी में
मेरे नाखूनों की खरोंच
उभर आई थीं
तुम्हारे ऊपर|
खरोंच के ऊपर
चिपका दिया था तुमने
फटे हुए कागज़ को
और घृणा से मुँह फेर लिया था
मेरी ओर से|
रो पड़ी थीं तुम
शिकायत करती हुईं
कि क्यों मैंने
कागज को नोंचना चाहा
बिना तुमसे अनुमति माँगे|
उस रात से
धरती में खुशबू नहीं रही,
हवाओं की छुअन गायब हो गई,
पानी फीका झो गया,
आग में तपन नहीं बची
और आकाश गूँगा हो गया|
उस रात से
मेरे नाखूनों की खरोंच में से
किताबे उगने लगीं
और तुम्हारे चारों और
नकाब बनकर तनने लगीं|
मेरे होंठों पर प्राथर्ना है,
याचना है मेरी आँखों में,
अभ्यर्थना है मेरे माथे पर,
कंपन है मेरी उँगलियों में,
मेरी आत्मा में क्रंदन है
और
मेरे अस्तित्व में प्रतीक्षा का रुदन है;
मुझे आदेश दो
की मैं नोंच दूँ
तमाम कागजों को,
किताबों को
और नकाबों को|
कहीं ऐसा न हो,
ये किताबें
फिर से
छा जाएँ
पूरे अस्तित्व पर
और फिर से
चेतना
कैद हो जाए
पोथियों के बीच!
मुझे प्रतीक्षा है
तुम्हारे संकेत की,
इससे पहले की,
मर जाए हमारी मुक्ति
या
मिट जाए
प्यार का ढाई आखर .......