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पोर-पोर दुखती थकान से / विमल राजस्थानी
Kavita Kosh से
टूट रहा है अंग-अंग रे पोर-पोर दुखती थकान से
पथ का कोई छोर न दीखे
नभ-नयनों की कोर न दीखे
निशि द्रुपदा के चीर-हरण-सी
अमर सुहासी भोर न दीखे
मन ऊबा इस सन्नाटे से, साँय-साँय सुनसान से
पोर-पोर दुखती थकान से
नील नयन की झील तरसती
यह घन-छाया तनिक बरसती
लगता कितना सुखद-सुहावन
लहरों पर बूँदों का नर्तन
ढँक जाती दर्दों की घाटी मोती-झालर के वितान से
पोर-पोर दुखती थकान से
आँसू दुख हल्का करते हैं
इसीलिये छलका करते हैं
भग्न हुई जीवन-वीणा के
तारों में सरगम भरते हैं
भर देते आँचल पीड़ा का मृदु सुधियों के सुखद गान से
पोर-पोर दुखती थकान से
-8.9.1973