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पौगण्ड भेतेॅ सुरूज / शिवनारायण / अमरेन्द्र

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घन्नोॅ ठाहुर सिनी के बीचेॅ
हुलकतेॅ ई पीरोॅ सुरूज
आरो क्यारी सिनी में फरलोॅ
गेंदा-गुलाब के बड़ोॅ-बड़ोॅ फूल
अपनोॅ डैना पसारतें
सरकी रहलोॅ छै।

सुरूज आबेॅ गाछी के फुनगी पर
चढ़ी चुकलोॅ छै
ओकरोॅ पीरोॅ धूप
हरेक ठारी पर
एकान्त दै रहलोॅ छै।

सूरज के ई एकान्त दस्तक में
कत्तेॅ प्यार भरलोॅ छै
जे क्यारी सिनी में लागलोॅ
गेन्दा-गुलाब नाँखि
पौगण्ड भै रहलोॅ छै,
आरो ओकरोॅ गरमाहट सेॅ
बेचैनी हुएॅ लागलोॅ छै।

घन्नोॅ ठाहुर सिनी के बेबस नजर
चढ़तेॅ सुरूज के
तिक्खोॅ किरिण
अपनोॅ अन्तस में
टाँकेॅ कहाँ पारै छै।

अनन्त दिश अपनोॅ यात्रा करतेॅ
ई अलख सुरूज
सौंसे दुनियां के दुख केॅ
स्मृति-खोहोॅ में
होम करी चुकलोॅ छै।