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पौरुष सिमट रहा है / रमा द्विवेदी
Kavita Kosh से
प्रेयसी का आज बादल उम़ड रहा है।
उसके ही आस-पास पौरुष सिमट रहा है॥
संकीर्णता विचारों की इस क़दर ब़ढने लगी है।
जाने-पहचाने चेहरों में ही वो सिमटने लगी है॥
मोह का कोहरा कुछ इस क़दर छाने लगा है।
इंसान जहां से बौना नज़र आने लगा है॥
इक्कीसवीं सदी में मानव कुछ ऐसा क़हर ढ़ाएगा।
चांद तो क्या वो धरती से भी उख़ड जाएगा॥