भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

प्यारे! कहा कहों मैं जीकी / स्वामी सनातनदेव

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

राग सुघरई, तीन ताल 27.8.1974

प्यारे! कहा कहों मैं जीकी।
बिना तिहारी प्रीति प्रानधन! लगत जिय न अब फीकी॥
विलखत हो बीतहिं निसि-वासर, लगत न कोउ थिति नीकी।
स्रवननकां न सुहात बात कोउ, लगी सुरति नित पीकी॥1॥
मन में रहत खलबली-सी कछु, उठत न सुरति कहीं की।
दरसनकों तरसहिं नित नयना, तकहिं न वस्तु मही की॥2॥
कहा कहों दुरदसा आपुनी, जानत हो सब जी की।
कृपा-कोर कछु करहु स्याम! तो द्विधा जाय यह ही की॥3॥