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प्यार उतना ही खरा है / कमलकांत सक्सेना
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रातयों ही बीती जाती
यादें तुम्हारी पोसते।
अहसास करते योग का
ओ विरह क्षण को कोसते
जानता हूं-
तीर निकला जो कमां से
लौट कर आता नहीं है
बात निकली जो जुबां से
फिर कभी होती नहीं है। लेकिन-
संयोग की भाषा पढ़ी
आँखें गगन में देखतीं
ओंठ खुलकर बंद होते
कुछ बोलने की सोचते।
रात यों ही बीती जाती...!
मानता हूं-
प्यार उतरा ही खरा है
सूर्य का जितना किरण से
चन्द्रमा का चांदनी से
पूर्व का जितना अरुण से। लेकिन-
ठोकरें खाकर राह की
कदम धरती को देखते
हाथ बढ़कर लौट आते
बाहें परस्पर तौलते।
रात यों ही बीती जाती